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जिन्होंने भारत को अंतरिक्ष की बुलंदियों पर पहुंचाने का देखा था सपना, जानें कौन हैं ISRO के जनक डॉ साराभाई

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नई दिल्‍ली : आज यदि अंतरिक्ष की दुनिया में भारत की गिनती विश्व के अग्रणी देशों में होती है, तो इसका श्रेय डा. विक्रम अंबालाल साराभाई को जाता है। उन्होंने भारत को अंतरिक्ष की बुलंदियों पर पहुंचाने का सपना देखा था। आज भारत सिर्फ चांद ही नहीं, बल्कि मंगल ग्रह तक पहुंच चुका है। यह उनकी कोशिशों का ही नतीजा है कि भारत अंतरिक्ष में नये-नये कीर्तिमान गढ़ता जा रहा है।

भारत जब स्वाधीन हुआ था, तो कोई भी इस उभरते हुए देश से उम्मीद नहीं कर रहा था कि यह इतनी जल्दी अंतरिक्ष में एक बड़ा मुकाम हासिल कर लेगा। आज अंतरिक्ष में भारत एक बड़ी शक्ति है, तो यह डा. विक्रम अंबालाल साराभाई के सोच का ही नतीजा है। वे उन चुनिंदा लोगों में से थे, जिन्होंने भारत को एक वैश्विक शक्ति के तौर पर उभरते हुए देखने का सपना देखा था। वे चाहते थे कि पश्चिमी देशों की तरह भारत भी अंतरिक्ष के क्षेत्र में आगे बढ़े। हालांकि शुरुआत में सरकार को इस कार्य के लिए मनाने में उन्हें थोड़ी मुश्किल हुई, मगर 1957 में जब तत्कालीन सोवियत संघ ने अपना उपग्रह अंतरिक्ष में भेजा, तो साराभाई के लिए भारत सरकार को राजी करना थोड़ा आसान हो गया। वे अंतरिक्ष की अहमियत को समझते थे। उनके प्रयासों से ही वर्ष 1962 में इंडियन नेशनल कमिटी फार स्पेस रिसर्च का गठन किया, जिसे बाद में इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान) के नाम से जाना गया। उन्हें भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक के रूप में भी जाना जाता है। उनकी प्रसिद्धि इतनी थी कि 1974 में सिडनी इंटरनेशनल एस्ट्रोनामिकल यूनियन ने चंद्रमा के क्रेटर को ‘साराभाई क्रेटर’ नाम देकर उन्हें सम्मानित किया। इतना ही नहीं, चंद्रयान दो के लैंडर का नाम भी ‘विक्रम लैंडर’ उनके नाम पर ही रखा गया।

कास्मिक रे की खोज: विक्रम साराभाई का जन्म 12 अगस्त, 1919 को अहमदाबाद में हुआ था। उनके पिता अंबालाल साराभाई बड़े उद्योगपति थे। बचपन से ही उनकी रुचि गणित और विज्ञान में ज्यादा थी। गुजरात कालेज से इंटरमीडिएट तक विज्ञान की शिक्षा पूरी करने के बाद वे 1937 में इंग्लैंड चले गए, जहां उन्होंने कैंब्रिज में पढ़ाई की। वर्ष 1940 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वे भारत लौट आए। सिर्फ 28 साल की उम्र में उन्होंने 11 नवंबर, 1947 को अहमदाबाद में भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला की स्थापना की। महान विज्ञानी सर सीवी रमन के मार्गदर्शन में कास्मिक रे पर अनुसंधान कार्य किया। हालांकि द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद वे फिर कैंब्रिज चले गए। वर्ष 1947 में कास्मिक रे पर अपने शोध कार्य के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डाक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई।

अंतरिक्ष में भारत के कदम: भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के तहत इसरो की स्थापना उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक रही। अंतरिक्ष के क्षेत्र में देश को आगे बढ़ाने के कार्य में डा. होमी जहांगीर भाभा ने भी साराभाई की खूब मदद की। उनके सहयोग से ही देश के पहले राकेट लांच स्टेशन की स्थापना तिरुवनंतपुरम के निकट थुंबा में की गई। इसे एक साल के अंदर तैयार कर लिया गया और 21 नवंबर, 1963 को पहली शुरुआती लांचिंग यहीं से की गई। साल 1966 में होमी भाभा के निधन के बाद विक्रम साराभाई को उनकी जगह भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग का चेयरमैन बनाया गया। होमी भाभा के कार्यों को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने भारत में परमाणु संयंत्र का निर्माण शुरू किया। 1966 में विक्रम साराभाई और नासा (अमेरिका) के बीच एक करार हुआ था, जिसके तहत नासा ने जुलाई 1975 में ‘साइट’ प्रोग्राम के लिए सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजी। हालांकि साराभाई इसे देख पाते, उससे पहले ही 30 दिसंबर, 1971 को उनका देहांत हो गया। वह भारत के पहले सैटेलाइट प्रोजेक्ट पर भी कार्य कर रहे थे। भारतीय विज्ञानियों ने उनका सपना पूरा करते हुए 1975 में देश के पहले उपग्रह ‘आर्यभट्ट’ को लांच किया। साल 1966 में उन्हें पद्मभूषण और 1972 में मरणोपरांत पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। उनके सम्मान में भारतीय डाक विभाग ने टिकट भी जारी किया था।

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संस्थान निर्माता थे साराभाई: साराभाई को एक संस्थान निर्माता के रूप में भी याद किया जाता है। उन्होंने इसरो के अलावा, अनेक संस्थाओं की स्थापना में अहम भूमिका निभाई। 11 नवंबर, 1947 को अहमदाबाद में भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला की स्थापना के साथ भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद की स्थापना में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके अलावा, कम्युनिटी साइंस सेंटर, अहमदाबाद, विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र, तिरुवनंतपुरम आदि की स्थापना कराने में भी उनका बड़ा योगदान रहा।

Source News: jagran

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